हिमाचल का संक्षिप्त इतिहास BRIEF HISTORY OF HIMACHAL PRADESH PART 1

हिमाचल का संक्षिप्त   इतिहास

हिमाचल प्रदेश का इतिहास अत्यधिक प्राचीन है।  भारत के इस पहाड़ी राज्य का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव अस्तित्व का अपना इतिहास। इस बात की सत्यता इस प्रदेश से  प्राप्त प्राचीन उपकरणो , औजारों  व अन्य प्रमाणों से सिद्ध होती है।


ऐतिहासिक स्रोत ----------
                                      इतिहास लिखने के लिए कुछ तथ्यों  तथा प्रमाणों की आवश्यकता होती है। हिमाचल में इतिहास लेखन में सबसे बड़ी कमी यहां पर इतिहास से संबधित सामग्री की कमी रही है।  यहां पर किसी भी काल का क्रमबंध और पूर्ण विवरण उपलब्ध नहीं है। बर्तमान में उपलब्ध आधार संस्कृत साहित्य, यात्रा विवरण , सिक्के , अभिलेख वंशावलियाँ प्रमुख है। इन सब को ध्यान में रख कर एक वैज्ञानीक ढंग से इतिहास की रचना की जा रही है।

शिलालेख और ताम्रपत्र -----
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                                         शिला लेख हिमाचल प्रदेश के प्राचीन इतिहास के अध्यनन में काफी सहायक सिद्ध हुवे है।  इनमे मंडी में सलोनू का शिलालेख ,काँगड़ा पथयार और कनिहारा   के शिलालेख ,हाटकोटी में सूनपुर की गुफा का शिलालेख , जोनसार बाबर क्षेत्र में अशोक का शिलालेख प्रमुख है।  इस सन्दर्भ में अभिलेख भी महत्वपूर्ण है।  ये अभिलेख फरमान या सनद है जो एक शासक द्वारा दूसरे शासक को ,अफसर को ,विद्वान को लिखाये जाते थे।  सिक्कों पर मेले अभिलेख त्रिगर्त ,कुलीन तथा औदुम्बरों के गणराज्य या उनके राजाओं का उलेख करते है।  बैजनाथ के एक मंदिर से प्राप्त गुप्तोत्तर कालीन अभिलेख , कुल्लू में सालरु गुपतकालीन अभिलेख ,निरमंड से प्राप्त ताम्रपत्र आदि प्रमुख आदि प्रमुख है। इस के अलावा चम्बा और कुल्लू से लगभग दो सौ ताम्रपत्र प्राप्त हुए है जो प्राचीन इतिहास की कड़ी को जोड़ने में सहायक है।  शिलालेखों के अलावा सिक्कों का हिमाचल प्रदेश के इतिहास में प्रमुख स्थान रहा है।


सिक्के तथा मुद्रा ------------

                                         हिमाचल के राजाओं ने अपनी मुद्रा का प्रचलन किया था।  इनमे काँगड़ा ,चम्बा ,और कुल्लू प्रमुख थे।  कुल्लू से प्राप्त वीरयश नामक राजा द्वारा चलाया गया सिका कुल्लू का सबसे प्रचीन सिक्का है।
 यह ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का है।  शिमला और काँगड़ा से प्राप्त कुछ सिक्के इससे भी पुराने है।  इन्हें आहत सिक्के कहा जाता है।  अन्य प्रमुख सिक्कों में ताँबा ,चांदी ,और कांसा आदि के सिक्के प्रमुख है।  जिनमे त्रिगर्त ,औदुम्बर ,कुणिंद ,योधेय आदि गण राजाओं की जानकारी मिलती है। यूनान और कुषाणों की मुद्राएँ भी शिमला और काँगड़ा से प्राप्त हुई है। इस क्षेत्र में परवर्तीकालीन सिक्के बहुत काम मिले है। इनको वृषभ अशवसार प्रकार के सिक्के कहा जाता है।


वंशावलियाँ -------------
                                  हिमाचल के इतिहास को जानने में वंशावलियों ने अपनी अहम् छाप छोड़ी है। ये वंशावलियाँ पहाड़ी राजपरिवारों में बहुत सख्यां में प्राप्त हुई है। इन वंशावलियों की तरफ सबसे पहले मूर क्राफ्ट ने ध्यान आकर्षित किया।  काँगड़ा वंशावलियों को खोजने की सलाह इन्होंने ही दी थी।  बाद में कनिघम ने काँगड़ा ,नूरपुर।,चम्बा ,मंडी ,सुकेत आदि राजघरानो की वंशावलियाँ खोजी थी। कैपटन हारकोर्ट ने कुल्लू की वंशावलियाँ खोजी थी।



स्मारक तथा इमारतें -------
                                         स्मारक तथा इमारतों का प्रयोग भी हिमाचल के इतिहास को जानने के लिए किया जा सकता है।  हिमाचल में आज भी ऐसी इमारतें तथा स्मारक है जो इतिहास को सँजोए हुवे है।  इनमे से काँगड़ा का किला तथा हिमाचल के पुराने मंदिर शामिल है।  इन सांस्कृतिक सम्पितियों को भी हिमाचल प्रदेश की ही नही बल्कि भारत की प्रमुख राजनीतिक धारा के साथ यहाँ के क्षेत्रों का इतिहास जानने के लिए स्वीकार करते है।



यात्रा विवरण -----------
                                  एहसकारों तथा विद्वानों द्वारा की गई यात्राओं का क्रमबद्ध विवरण भी इस प्रदेश के इतिहास को जानने में सहायक हुवे है।  हिमाचल का सबसे पुराण विवरण टॉलेमी का है।  भारत की अवस्था पर लिखा ग्रन्थ दुसरी शताब्दी का है।  इस ग्रन्ध में कुलिन्दों का भी वर्णन मिलता है।  चीनी यात्री भारत भ्रमण पर 630 ई पूर्व में आया 15 बर्षों तक भारत में भृमण कर भारत के बारे में लिखा।  इसने अपने विवरण पर त्रिगर्त ,कुल्लू आदि जनपदों पर काफी लिखा है।  अलबरूनी ने भी इन जनपदों का बिस्तृत वर्णन किया है।  मुगल राजाओं ने भी इस प्रदेश पर काफी लिखा है।  अग्रेजों में विलियम फ्रिन्जर ,थॉमस कोरियार्ट ,वर्नियर ,जॉर्ज फरिस्टर ,जेम्स वैली ,अलेग्जेंडर जेराड, विलियम मूरक्राफ्ट ,आदि ने समय समय पर इस पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा की और इस क्षेत्र की समाजिक ,आर्थिक ,राजनितिक दशा के बारे में अपने यात्रा विवरणों में हिमाचल के बारे में लिखा।




साहित्य ---------
                       हिमाचल के इतिहास को जानने में संस्कृत साहित्य का बहुत योगदान रहा।  बैदिक ग्रंथो ,पुराणों में यहाँ के लोगों के सामाजिक आर्थिक ,व् राजनितिक जीवन के अलावा यहाँ के भूगोल पर भी प्रकाश डाला है।  रामायण ,महाभारत ,बृहत्संहिता ,पाणिनी की अष्टाध्यायी ,कालिदास का रघुवंश ,विशाखादद की मुद्राराक्षस आदि के काफी वर्णन मिलते है।  और कल्हण की राजतरंगनी विशेष उपयोगी है।  इसका रचना कॉल 1150 ई के आस पास है।  कल्हण कश्मीर नरेश राजा जयसिंह के दरबार में रहता था।  जिसमे 1150 से 1140 ई के बीच का इतिहास है।  पजयभट के इतिहास ग्रन्ध में भी हिमाचल के बारे में जानकारी मिलती है।  लोक गाथाएं भी हिमाचल के इतिहास के बारे में बताती है।




   प्रागऐतिहासिक काल-------------------
                               

                                                      प्रागऐतिहासिक काल ----शिवालिक की तलछटी में स्थित ब्यास घाटी में काँगड़ा ,गुलेर ,देहरा और ढलियारा में बिलासपुर, नालागढ़ की सिरसा सतलुज घाटी में तथा सिरमौर के मारकण्डा घाटी के सुकेती क्षेत्र में बिखरी बजरी और पंखों के विशालकाय पत्थरों में गढ़े हुवे पत्थरों के औजारों ,छुरों ,हाथ की कुल्हाड़ियों और धार दार औजारों के मिलने से इस क्षेत्र में मानव इतिहास का वर्णन मिलता है।  मारकंडा और सतलुज घाटी मे पाए गए औजारों से यह पता चलता है कि ये 40,000 बर्ष पुराने है।  हिमाचल का
 प्रागऐतिहासिक काल भारत के मैदानों और मध्य एशिया से लोगों के आने का इतिहास बताता है।  सिधु घाटी की सभ्यता 3000 ई पूर्व से 1750 ई पूर्व एक विशाल भूखंड में फैली थी।  हिमाचल के प्राचीनतम निवासी कोल थे जिन्हें मुंडा भी कहा जाता है।  पष्चिमी हिमाचल के कोली ,काली ,डूम ,तथा चनाल किनोर , लाहौल स्पिति के चमांग डुमान्ग प्राचीन जातियां है।

हिमाचल में खश -----------

                                       भारतीय आर्य मध्य एशिया से चलकर दक्षिण की ओर चले और ईरान पंहुचे इनसे कुछ वहीँ रहे  तथा कुछ साहसिक झुण्ड पूर्व की ओर बढ़े और हिंदुकुश पर्वत को पार कर सिंधु तट तक आ गए जिसे वे सप्तसिंधु कहते थे अर्थात सात नदियों का समूह। इनके आगमन का समय 2,000 ई पूर्व माना जाता है।  ये ऐसे लोगों के संपर्क में आये जो इनसे ज्यादा सभ्य थे तथा किलों से घिरे शहरो में रहते थे। इन्होंने उन्हें हरा दिया और  वहां बस गये। यहाँ से ये पंजाब को पार कर हिमालय की तराई में सरस्वती ,यमुना और गंगा की घाटियों में बस गये। इस भूमि के स्वामियों ने जो श्यामवर्ण के थे उनका विरोध किया जिन्हें ये दसयू कहते थे। इन दस्यु राजाओं का शक्तिशाली राजा शाम्बर था जो आर्यों का सबसे बड़ा शत्रु था। 40 बर्षों तक उससे लड़कर आर्यों ने शाम्बर को हरा दिया। उसे हरा कर कुछ आदिवासी  उत्तर की ओर हिमालय में  चले गए जहाँ खोशो के अधीन दयनीय स्थिति में रहने लगे। आर्य मैदानों में फैलते गए  और वे सप्त सिंधु के मैदान में रहने लगे जिसकी उतरी सिमा शिवालिक की तराई को छूती थी।


वैदिक कालीन हिमाचल ------------

                                                    ऋग्वेद में हिमालय उसकी चोटियों और उनसे निकलने वाली नदियों का वर्णन किया है। कुछ आर्य महात्मा हिमालय की तराई में जीवन यापन करने आये और वहीँ बीस गए।  सिरमौर में रेणुका झील जमदाग्नि से सम्बंधित है। और कुल्लू घाटी में मणिकरण में वशिष्ठ कुंड वशिष्ट ऋषि से ,निरमंड परशुराम से ,बिलासपुर में ब्यास गुफा ब्यास ऋषि से सम्बन्धित है।
 ऋग्वेदिक काल में एक से अधिक परिवारों के समूह को बरिन्द कहा जाता था। कई बरींदों के समूह को रबून्द कहा जाता था।  एक समय में बरिन्द  अपनी सिमा को बढ़ा कर वे जनपद कहलाने लगे।  इस प्रकार के जनपद पर राजा का शाशन हो गया और रबून्द नेताओं द्वारा शाशित जनपद संघ या गणराज्य कहलाता था।
उत्तर वैदिक काल में किरात ने हिमाचल में प्रवेश किया।  वह मंगोल तिबती भाषी प्रजाति थी।  यहाँ स्थापित कबाइली गणतंतरों  को जनपद कहा जाता था। ये सांस्कृतिक तथा राजनैतिक इकाई होते थे इनके रीतिरिवाजों और बोलियों द्वारा इनकी अलग पहचान होती थी।

सिकंदर का आक्रमण --------
                                           ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि बुद्ध ने काँगड़ा ,और कुल्लू के अलावा अन्य कई स्थानों पर बोद्ध धर्म का प्रचार किया था। सिकंदर ने लगभग 326 ई पूर्व भारत पर आक्रमण किया था यह ब्यास नदी तक पहुंच गया था जहाँ उस का मुकाबला पोरस से हुवा था।  सिकंदर के सैनिक लड़कर  थक गए थे उन्होंने हिमालय के दुर्गम और बीहड़ क्षेत्र में जाने से मना  कर दिया था वे घर जाना चाहते थे। और आगे जाने से माना कर दिया। ये माना जाता है कि उन में से 6 सैनिक कुल्लू के मलाणा गाँव में बस गए थे। तभी मलाणा वासी अपने आप को उनका वंशज मानते है।

मौर्य काल ------------

                             सिकंदर के बाद चन्द्रगुपत मौर्य ने भारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। स्त्रोतों की जानकारी के अनुसार नंदवंश को समाप्त करने के लिए चाणक्य ने त्रिगर्त के राजा परवतेश से संधि करके सहायता मांगी थी।  इसका उलेख जैनधर्म के ग्रन्ध परिशिष्टपर्वन में उलेख मिलता है कि चाणक्य हिमवतकूट आया था।  बोद्ध ग्रंथो से भी यह जानकारी मिलती है की चाणक्य का पर्वतक नामक मित्र था।  विशाखदत्त के ग्रन्ध  मुद्रारक्षष से भी यह पता चलता है कि चाणक्य ने किरात ,कुलिंद ,और खश आदि युद्धप्रिय लोगों को चंद्रगुप्त मौर्य की सेना में भर्ती किया था।  चंद्रगुप्त ने कुलिंद राज्य को शिरमोरय की सज्ञा दी थी। जो बाद में  सिरमौर बन गया।  चंद्रगुप्त मौर्य के पोत्र अशोक ने नेपाल ,कमाऊं ,गढ़वाल ,हिमाचल प्रदेश और कश्मीर आदि क्षेत्र को अधिकृत कर लिया था।  अशोक ने युद्ध विजय के स्थान पर धर्म विजय का अभियान चलाया था और बोद्ध धर्म का प्रचार किया उसने हिमालय क्षेत्र में बोद्ध धर्म के रचार के लिए आचार्य मजिहिमा थैर को भेजा ।  ह्वेनसांग के अनुसार अशोक ने काँगड़ा तथा कुल्लू में बुद्ध की याद में स्तूप बनवाया था। आज भी धर्मशाला के निकट चैतडू में बोद्ध स्तूप है जिसका निर्माण अशोक ने करवाया था।  शिमला ,सोलन ,सिरमौर आदि क्षेत्रों में पहले ही बोद्ध धर्म का प्रचार हो चूका था।  अशोक ने कालसी के आस पास भी एक स्तूप का निर्माण करवाया था।



शुंग काल --------------
                                 शुंग सम्राट हिमाचल को कुछ समय तक रख सका। शुंग के शाशन के समय इस पर्वतीय प्रदेश में ब्राह्मण धर्म और खासकर शैव धर्म का अत्यधिक विकास हुवा।
पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु के बाद भारत के अनेक राज्य स्वतंत्र हो गए और कई राज्यों पर यवनों का शासन हो गया। डेमोटियस और मिनेंडर के पंजाब विजय के बाद यहाँ पर शुगों  का शासन समापत हो गया।  पर्वतीय प्रदेश के कुछ राज्यों ने यवनों की अधीनता स्वीकार कर ली इसके प्रमाण के रूप में अपालोडोटस रजत सिक्के ज्वालामुखी से प्राप्त हुवे है।  जो यवनों के इस क्षेत्र में हिन्द यूनानी राज्य के विस्तार के द्योतक है।  अंटिओकस द्वितीय ,फिओजेन्स ,लिसिअस ,अंटीआकाइड्स और मिनेण्डर के भी कुछ रजत सिक्के काँगड़ा से मिले है।

ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में शकों का आक्रमण शरू हुवा शकों का यहाँ बहुत प्रभाव रहा। शक सूर्य के उपासक थे। उन्होंने हिमाचल के नीरथ में  सूर्य नारायण के मंदिर का निर्माण किया।


कुषाण काल -----------

                                  कुषाणों ने प्रथम सदी ई में आक्रमण किया जिसका पहाड़ी राज्य सामना न कर सके और सभी ने हथियार दाल दिए। कुषाण बहुत शक्तिशाली थे कुषाणों के आक्रमण का समय 20 ई माना गया है।  कुषाण मध्य एशिया और बैक्ट्रिया से आये थे।  कनिष्क और हुविष्क नामक दो ही शक्तिशाल्ली शासक हुवे। कनिष्क ने कश्मीर से लेकर कमाऊं तक पर्वतीय क्षेत्र को अपने अधीन कर सम्राट की उपाधी धारण की।  कुषाणों के सिक्के हिमाचल के अनेक स्थानों से मिले है।  कालका कसौली के पास कनिष्क के ताम्र के 40 सिक्के मिले है। कनिष्क का एक सिक्का काँगड़ा के कनिहारा नामक स्थान से भी मिला है।  चम्बा में भी कुषाण कला के प्रमाण मिले है।  किनोर ,लाहौल स्पिति ,कुल्लू से कुषाणों की अधीनता का प्रमाण नही मिला है।  कुषाणों ने हिमाचल में अधिक समय तक शाशन नही किया पर इन राज्यों को कमजोर कर दिया था। जिसके परिणामस्वरूप ये पहाड़ी राज्य अधिक समय तक स्वतंत्र न रह सके और चौथी शताब्दी में समुंद्रगुपत ने इन्हे जीत कर अपने अधीन कर लिया। कश्मीर से लेकर नेपाल तक का क्षेत्र जो कभी कुषाण का हुवा करता था बदलकर विशाल गुपत राज्य बन गया।

गुपत काल -------------
                                कुषाणों के पतन के बाद राज्यों के लिए कुलींदे और योधेय आपस में लड़ बैठे और कुलिंद साम्राज्य जल्दी ही यौधेय साम्राज्य में विलीन हो गया।  चौथी शताब्दी में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में गुपत साम्राज्य की नींव चद्रगुपत ने 319-320 में रखी थी।  उसका पुत्र समुंद्रगुपत महान विजेता था।  इलाहाबाद के अशोक स्तम्भ पर उत्कीर्ण शिलालेख में समुंद्रगुपत द्वारा विजित पदेशों की सूची दी गई है।  जिन्होंने युद्ध किये बिना ही आधिपत्य को स्वीकार कर लिया था। इस में पंजाब के कत्रिपुर और निकटवर्ती शिवालिक के पहाड़ी राज्य जैसे अर्जुनायन ,यौधेय और मद्रक गणतंत्रीय कबीलों का भी उलेख है। समुंद्रगुपत ने पंजाब के गणतंत्रों के सामने दो शर्तें रखी या तो पूर्ण विनाश या फिर शांति से गुप्तों की अधीनता स्वीकार करना। अधिकांश ने समुंद्रगुपत की अधीनता स्वीकार कर ली।
चौथी शताब्दी से छठी शताबदी के बीच हिमाचल प्रदेश के कुछ पुराने गणतंत्र नष्ट हो गए और कुछ नवीन गणराज्यों का जन्म हुवा। चौथी शताब्दी के बाद औदुम्बर गणराज्यों के बारे में कुछ भी पता नहीं चलता है। प्रथम शताब्दी में शाकाल अथवा स्यालकोट में मिनेंडर अथवा संस्कृत के मिलिंद का उदभव हुवा जो ओदुम्बर का निकटतम पड़ोसी था और जिस ने औदुम्बर गणराज्य को दुर्बल किया।  औदुम्बर इतने कमजोर हो गए की उनका स्वतंत्र सिक्का तीसरी चौथी शताब्दी तक न रहा।


हर्ष वर्धन काल ------------
                                  सातवी शताब्दी में हर्ष के उदय के साथ ही भारतीय राजनीति का केंद्र पाटलिपुत्र से हट कर थानेश्वर और बाद में कनौज हो गया। हर्ष उतरी भारत में साम्राज्य बनाने में सफल हुवा। वह हिन्दू धर्म का सरंक्षक था। उसने बोद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग का अपने दरबार में स्वागत किया था। वह उत्तर के रास्ते ताशकंद और समरकंद होता हुवा गंधार राज्य में 630 ई में पहुँचा था। ह्वेनसांग भारत में लगभग 13 बर्ष रहा और उसने लगभग हर प्रान्त का भ्र्रमण किया। उसने भारत की स्थिति के बारे में लिखा।  वह उन भागों में घुमा जिन्हें आज हिमाचल कहा जाता है।  635 में उसने त्रिगर्त  की राजधानी का दौर किया था। वह 4 महीने तक राजा उतितस (आदिमा ) का अतिथि रहा और वहां से कनोज गया और बापसी में भी 643 ई में फिर से उतितस के साथ जालंधर में रहा।


चीनी यात्री ह्वेनसांग का विवरण ---

                                                   हिमाचल में काफी चावल और दाल पैदा होते है।  यहां के बन घने और छाया दार है। फल और फूल प्रचूर मात्रा में होते है।  लोग साहसी और उतावले है तथा देखने में असाधारण और गवारुं लगते है यहाँ 20 मठ और लगभग 2000 पुजारी है। इनमे हीनयान और महायान दोनों के विद्यार्थी है।  तीन देव मंदिर है जहाँ 5 सौ विद्यार्थी है जो पाशुपत धर्म को मानते है।


हर्षवर्धन के बाद का काल ---------
                                     647 ई में  हर्ष की  मृत्यु के बाद उथल पुथल के युग में कश्मीर के शासक ललितादित्य के समकालीन यशोवर्धन के समय हिमाचल प्रदेश के  इतिहास के विषय में बहुत कम जानकारी मिलती है। कल्हण की राजतरंगिणी से पता चलता है कि ललितादित्य और यशोवर्धन के बीच युद्ध हुवा था जिसमे यशोवर्धन हार गया था। इस समय में त्रिगर्त और ब्रह्मपुर उस के अधीन आ गए।  जब कश्मीर के शाशक शंकरवर्मन ने (833 -903 )  गुजरात के राजा पर आक्रमण कर दिया इसका विरोध त्रिगर्त के राजा पृथ्वी चंद्र  ने किया पर गुजरात का राजा हार गया और त्रिगर्त भी कश्मीर के अधीन हो गया।  8 वीं से 12 वीं शताब्दी तक अनेक साहसी राजपूतों ने रावी और युमना के बीच हिमालयन की सीमांत श्रृंखला में राज्य स्थापित किये।

महमूद  गजनवी --------
                                   जिस समय राजपूत मध्य हिमालय में राज्यों का निर्माण कर रहे थे उस समय महमूद गजनवी के आक्रमण 1,000 ई में आरम्भ हो चुके थे। और 1,009 ई में उसने पेशावर के निकट आनंदपाल को पराजित कर दिया। उसने नगरकोट पर आक्रमण किया और उसके खजाने को लूट लिया वह अपने साथ बहुत अधिक मात्रा में धन दौलत ले गया।  तथा अपनी सेना को किले की सुरक्षा के लिए छोड़ गया जिसने 1,043 ई तक अधिकार बनाये रखा। बाद में इसकी सेना को दिल्ली के तोमर राजा परमार भोज ,कलचुरी के कर्ण और अन्हिलवाड़ा के चौहान के संघ ने निकाल बाहर किया।

मोहमद गौरी ---------

                                भारत पर महोमद गौरी ने 1175 ई से 1192 ई तक अनेक आक्रमण किये 1192 ई के तराइन के युद्ध में उसने दिल्ली के शाशक पृथ्वीराज चौहान को पराजित कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। मैदानों में मुस्लिमों के प्रवेश से 12 वीं  शताब्दी में चौहान ,चन्देल ,तोमर ,पंवार और सेन हिमाचल आये। उन्होंने हिमाचल में छोटी छोटी रियासतों की स्थापना की। दिल्ली ,बनारस ,बंगाल पर मुसलमानों के आधिपत्य  से  ब्राह्मण और राजपूत प्रवासियों की सँख्या हिमाचल में बढ़ती गई

तुगलक ---------
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                          मुहमदबीन तुगलक (1325 -1351 ) ने अपनी सेना को काँगड़ा में नगरकोट के राजा पृथ्वीचंद को हराने के लिए भेजी थी। 1360 ई में हिमाचल के काँगड़ा का राजा रूपचंद था उस समय दिल्ली का शाशक फिरोजशाह तुगलक था (1351 -1388 )   राजपूत सरदार गुरिल्ला युद्ध से निरंतर मुस्लिमों को परेशान करते थे। और हमेशा अपने को स्वतंत्र करने के लिए प्रयास करते रहते थे। राजा रूप चंद भी अपनी सेना लेकर गया और उस ने दिल्ली तक के मैदानों को लूट लिया। फिरोजशाह तुगलक इस से क्रुद्ध हो गया और एक विशाल सेना लेकर रूपचंद को दण्डित करने के लिए 1360 ई में नगरकोट के लिए कूच किया। रूपचंद राजा ने अपने आप को किले में बंद कर दिया फिरोजशाह की सेना ने दूर दूर तक लूट मार की। किले का 6 महीने तक घेरा चलता रहा पर वह किले के अंदर जाने में असमर्थ रहा। बाद में फिरोजशाह तुगलक ने घेरा उठाने और सन्धि करने का सन्देश भेजा।  रूपचंद राजा से प्रभावित होकर फिरोजशाह तुगलक ने उसे कई घोड़े और एक छत्र तथा जड़ाऊ पोशाक भी दी। इस तरह फिरोजशाह नगरकोट जितने में असफल रहा। बाद में फिरोजशाह तुगलक ज्वालमुखी गया और वहां से 1300 पुस्तकों को अपने साथ ले गया और कुछ पुस्तकों का फारसी में अनुवाद भी करवाया।  उस समय के फेमस लेखक ईजुदीन खालीद खानी ने इस का फारसी में अनुवाद किया तथा सुल्तान के नाम पर इसका शीर्षक दलायते फिरोजशाही रखा गया।

मंगोल ----------
                       मंगोलों का सबसे भयंकर आक्रमण 1398 ई में तैमूर लंग के नेतृत्व में हुवा था।  उस बर्ष के दिसंबर माह में उसने दिल्ली को तहस नहस कर दिया। तैमूर वहां से मेरठ और हरिद्वार गया। वहां से वह शिवालिक की पहाड़ियों में गया और उसने सिरमौर की कीयरादा घाटी को जीता  था। तैमूर के आकमण के समय हिंडूर (नालागढ़ ) का शाशक अमरचंद था (1350 -1406  ) उस ने तैमूर को डर के मारे रसद (खान पान ) देने के लिए कहा और तैमूर मान गया वह हिंडूर को बिना किसी नुक्सान के आगे बढ़ गया। तैमूर ने नगर कोट पर आक्रमण किया उस समय वहां का राजा मेघचन्द था (1390 -1405 ) ई  उसने तैमूर का बिरोध किया और उस के साथ कई  लड़ाइयां लड़ी और तैमूर ने  8 किले भी जीते। पठानकोट और नूरपुर पर भी तैमूर ने हमला किया था।

मुगल शासन ---------
                                1526 ई में बाबर ने इब्राहिम लोधी को पराजित कर उस की हत्या कर दी और मुगल शासन की स्थापना की।


अकबर--- ने टोडरमल को पहाड़ी रियासतों की जमीने लेकर एक शाही जमीदारी स्थापित करने के लिए नियुक्त किया। इस जमीदारी में काँगड़ा घाटी से 66 गांव ,चम्बा से रिहलू ,छेरी ,घारो और पथियार तथा अन्य पहाड़ी रियासतों से उनके साधनो और भू क्षेत्रों के अनुरूप भूखंड ले लिए गए।


जहाँगीर ---

                      जब जहाँगीर 1606 ई में गद्दी पर बैठा तो नगरकोट को जीतना उसकी योजना में शामिल था। 1615 ई में उसने पंजाब के प्रमुख मुर्तजा खान तथा धमेरी नूरपुर के राजा सूरजमल के बेटे राजा बासू को उसका सहायक सेनापति बनाकर काँगड़ा पर विजय के लिए भेजा। सूरजमल अपने राज्य के निकट मुगलों के प्रभाव के विस्तार और संगठन को पसंद नहीं करता था। जहाँगीर ने सूरजमल के विद्रोह को दबाने को दबाने के लिए और किले को जीतने के लिए राजा बिक्रमाजीत और अब्दुल अजीज को भेजा। शाही सेना के दबाब से सूरजमल को मऊ के किले में शरण लेनी पड़ी राजा बिक्रमजीत ने किले पर विजय प्राप्त की। सूरजमल मऊ के किले से भाग कर तारागढ़ के किले में पहुचा जो कि चम्बा के अधीन था। लंबे समय के बाद किले की घेरे बंदी के बाद सूरजमल पराजित हुवा और वह चम्बा भाग गया और वहां पर उसकी मृतु हो गई उसकी सारी सम्पति पर मुगल बादशाह ने अधिकार कर लिया।


शाहजहाँ -------
                        जब 1627 ई में शाहजहां गद्दी पर बैठा तो जगतसिंह का मनसब फिर सुनिश्चित किया गया। 1834 ई में उसे बंगाल का थानेदार बनाया गया जोकि कुरजम घाटी  में है। उसे कोहाट में विद्रोहियों को दबाने का काम भी सौंपा गया। उसे बंगाल का फौजदार बना दिया गया।


औरँगजेब -----

1678 ई में औरंगजेब ने चम्बा के सारे मंदिरों को गिराने का आदेश जरी किया। राजा चतर सिंह ने मुगल शासक के हुक्म को मानने से इंकार कर दिया और आज्ञा दी कि मुगल शाही आज्ञा की अवमानना के प्रतीक स्वरूप प्रत्येक मंदिर पर सोने से मढ़ी बुर्जी बनाई जाए। यह भी कहा जाता है कि राजा चतर सिंह ने गुलेर ,बसौली और जम्मू के राजाओं को मिलाकर पंजाब के मिर्जा रजिया बेग के पहाड़ी राज्यों पर आक्रमण के बिरुद्ध एक संघ बनाया।  रजिया बेग पराजित हुवा और पहाड़ी राज्यों को उनका क्षेत्र वापिस मिल गया। काँगड़ा और चम्बा के राजा अकबर के समय से ही मुगलों के करदाता थे। चम्बा के राजाओं के साथ मुगलों ने उदारता का व्यवहार किया। इन राजाओं को नियमित रूप से नजराना भेंट करके मुगलों के प्रति अपनी स्वामी भक्ति प्रकट करनी पड़ती थी।

मुगलों का पतन और राजाओं का विद्रोह ----------
                                                                        1707 ई में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। 1738 - 39 के बाद फारस के नादिरशाह द्वारा पंजाब और दिल्ली पर आक्रमण किया जा चूका था।  1739 से 1752 ई तक पंजाब स्वतंत्र था और बाद में प्रायः दिल्ली और काबुल के अधीन रहा। मैदानों में फैली अब्यवस्था का लाभ उठा कर सारे पहाड़ी राज्यों ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।  और मुगलों द्वारा छीने हुवे अपने क्षेत्र वापिस अपने अधीन कर लिए। काँगड़ा के शासक घमंड चंद को अब्दाली द्वारा 1758 ई में जालंधर ,दोआब तथा सतलुज और काँगड़ा के बीच के प्रदेशों  के शासन का कार्यभार सौंपा गया। काँगड़ा का किला अभी भी मुगलों के अंतिम अधिकारी सैफ अली खान के अधीन था।  1775 ई में घमंड चंद का पोता संसार चंद काँगड़ा की गद्दी पर बैठा जिसकी सबसे बड़ी इच्छा किले को पनः प्राप्त करने की थी जिसके लिए उसने प्रयास किया पर असफल रहा तब उस ने सिख सरदार जयसिंह कन्हैया की सहायता ली और दोनों की मिली जुली सेनाओं ने 1781 - 82  में किले की घेरा बंदी की 1783 ई में किलेदारों ने आत्म समर्पण कर दिया।  सिखों की चुराई से किला सिखों के हाथों में चला गया और इस प्रकार पहाड़ी राज्यों में मुस्लिम शासन का अंत हुवा।


सिख शासन -----------

                                  काँगड़ा के नगरकोट का किला जयसिंह के पास था संसार चंद ने कुकरचकिया मिशल के महासिंह तथा रामगढ़िया के जस्सा सिह के साथ मिलकर जयसिंह के खिलाफ मोर्चा खोला और बटाला में दोनों के बीच युद्ध हुवा जिसमे जयसिंह हार गया और किला संसार चंद को लोटा दिया और संसार चंद ने जयसिंह को जीते हुवे मैदानी क्षेत्र उसे लोटा दिए। उस के बाद संसार चंद ने अपने आस पास के क्षेत्रों को अपना करदाता बना लिया। संसारचंद ने 1801 ई में रानी सदाकौर के बटाला के निकट के क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया और लाहौर का महाराजा रणजीत एक विशाल सेना लेकर बटाला पंहुचा और नूरपुर और नोसेहरा पर अधिकार कर लिया।  1840 ई में संसारचंद ने होशियारपुर और बजवाड़ा के क्षेत्र पर आक्रमण किया परंतु जब रणजीत सिह की सेना इन क्षेत्रों में पहुँची तो संसार चंद को पनः वापिस लौटना पड़ा।

पहाड़ी शासकों के संघ ने कहलूर के राजा के माध्यम से गोरखा अमरसिह थापा को राजा संसार चंद पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। 1804 ई तक गोरखों ने अपना राज्य गंगा से सतलुज तक फैला दिया था। जिसमें पूरा कुमांऊ ,गढ़वाल ,सिरमौर तथा बारह ठकुराइयां जिन्हें बाद में शिमला हिल्स कहा गया ,ये समलित थी। अमरसिह थापा ने आमंत्रण स्वीकार कर 40,000 की सेना लेकर 1805 ई में संसार चंद को हराने चल पड़ा। पहला मुकाबला महलमोरिया में हुवा जहाँ संसार चंद हार गया उसने परिवार के साथ काँगड़ा के किले में शरण ले ली। गोरखों ने 2 बर्ष तक किले को घेरे रखा।  राजा संसार चंद चुपके से रणजीत सिह के पास जा पहुंचा ज्वालामुखी के मंदिर में दोनों राजा मिले और संसार चंद की शर्ते मान ली।  1809 में रणजीत सिह ने गोरखों पर आक्रमण किया  और गोरखे पराजित हुवे। किले पर रणजीतसिंह का अधिकार हो गया और किले का नया किलेदार देसासिंह मजीठिया को नियुक्त कर पहाड़ी रियासतों से नजराना प्राप्त करके  लोट गया । प्रथम  आंग्ल सिख युद्ध के बाद और किले के समर्पण के पश्चात् हिमाचल के पहाड़ों से सिख आधिपत्य सपाप्त हो गया।  

अंग्रेजों और सिखों  में सत्ता सँघर्ष -------

महाराजा रणजीतसिंह ने 1811 ई में कोटला के किले को जीता । 1813 में हरिपुर (गुलेर ) को जीता।  नूरपुर और जसवां के राजा को राज्य से हाथ धोना पड़ा 1818 ई में दतारपुर के राजा की मृत्यु  के बाद उस के पुत्र ने राज्य रणजीत सिह को सोंप दिया सिबा राज्य ने भी अपना राज्य रणजीत सिंह को सोंप दिया। राजा संसार चंद की 1823 ई में मृत्यु हो गई और उस के बेटे अनिरुद्ध चंद को एक लाख रूपये रणजीत सिंह को नजराना देकर गद्दी पर बैठने का अधिकार प्राप्त हुवा था। उसने  कुल्लू के राजा से कर उगाहने के लिए सिख सेना भेजी राजा डर  गया और भाग गया और बाद में राजा को सिखों की मांगे पूरी करनी पड़ी। चम्बा, मंडी  और सुकेत राज्य भी निरन्तर खतरे में रहते थे।

महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सिख साम्राज्य का पतन होना शुरू  हो गया। जनवरी 1845  ई में मुदकी और फिरोजपुर में सिखों और अंग्रजों के बीच लड़ाइयाँ हुई और 1846 ई में अलीवाल में तथा 10 फरवरी 1846 में सबराओ में लड़ाई हुई। जिनमे सिख हार गए।  मार्च 1846 ई को   लाहौर  की संधि के अनुसार  पहाड़ी राज्य सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन हो गए। जालंधर दोआब का बिस्तृत क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन हो गया और सिखों को डेढ़ करोड़ रुपये युद्ध का खर्चा  अंग्रेंजों को देना पड़ा था जिसमे इ 50 लाख रूपये सिखों ने नकद दिए और शेष एक करोड़ के बदले सिंध और ब्यास के बीच के पहाड़ी प्रदेश अंग्रेजों को देने पड़े जिनमें कश्मीर और हजारा भी शामिल थे। अंग्रेजों ने सतलुज और रावी के बीच के क्षेत्र को अपने अधीन रखा और शेष राज्य को जम्मू के महाराजा गुलाबसिंह को बेच दिया इससे काँगड़ा ,गुलेर ,जसवां ,दातारपुर ,नूरपुर ,सकेत ,मंडी ,कुल्लू आदि क्षेत्र थे। ये सीधे गुलाब सिह के अधीन हो गए। अंग्रेज सिख युद्धों में अंग्रेजों की सफलता के बाद सर्वोच्च सता अंग्रेजों के हाथों में आ गई .

पहाड़ी राजाओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक विद्रोह किये सबसे पहले नूरपुर के वजीर रामसिंह और काँगड़ा के प्रमोध सिंह ने विद्रौह किया इसके बाद जसवां और दतारपुर के राजाओं ने विद्रोह कर दिया। कमिशनर लारेंस के अधीन भेजी गई एक सेना ने इस क्षेत्र को रोंदते हुवे शीघ्र ही विद्रोह को कुचल दिया। विद्रोही सरदारों को बंदियों के रूप में अल्मोड़ा भेज किया गया ,जहाँ प्रमोध चंद की 1851 ई में मृत्यु हो गई। नूरपुर के वजीर रामसिंह को काबू करना कठिन था उसे देश निकाला दे दिया गया और उसे सिंगापूर भेज दिया गया। जहाँ उस की मृत्यु हो गई अंग्रेज सिख युद्धों में अंग्रेजों की जीत हुई जिससे सर्वोच्च सत्ता अंग्रेजों के  अधीन आ गई। 




1857 का स्वतंत्रता संग्राम-------------
                                         -        1857 का सैन्य बिद्रोह मेरठ से शुरू हुआ। 13 मई 18 57 तक सैन्य बिद्रोह की सूचना शिमला तक पहुँच गई।    1857 के स्वतंत्रता संग्राम की गूंज हिमाचल प्रदेश में भी उठने लगी। कसौली के 80 सैनिकों ने बिद्रोह कर दिया और बाद में  शिमला के जतोग में स्थित नसीरी बटालियन के सैनिको ने भी  बिद्रोह कर दिया। सैनिको ने कसौली में स्थित खजाना लूट लिया। डिप्टीकिशनर विलियम हे ने मंडी के राजा के माध्यम से विद्रोहियों को समझा  कर शांत करने का प्रयास किया पर उसे सफलता ना मिली। शिमला से अंग्रेज चुपचाप पहाड़ी राज्यों में चले गए शिमला खाली हो गया। पहाड़ी राजा अंग्रेजों के प्रति बफादार थे उन्होंने अंग्रेजों के घरों को सुरक्षा प्रदान की। सूबेदार भीम सिंह  ने क्रांतिकारी बिद्रोही सेना का नेतृत्व किया।  अंग्रेजो ने गोरखों और राजपूत सैनिकों में फुट डलवा दी।  सूबेदार भीम सिह को कैद कर लिया गया और फांसी की सजा सुनाई  गई।  भीम सिह जेल से भाग कर रामपुर के राजा शमशेर सिह के यहाँ शरण ले ली।  अंग्रेजो ने राजा शमशेर सिंह को देने वाला 15000 रूपये नजराना देना बंद कर दिया। बाद में भीमसिंह और उसके साथी प्रतापसिह को पकड़ लिया गया और फांसी की सजा दी गई।




* बुशहर में दूम आंदोलन ----------------1859  में रामपुर बुशहर में  दूम आंदोलन हुआ। लोगों ने नकदी लगान देने से माना कर दिया और बिद्रोह कर दिया। किसान राजा को फसल का 5 वां हिस्सा देते थे और पुरानी प्रथा के अनुसार घी , तेल , दूध ,ऊन ,बकरी आदि राजा को देते थे। किसान नकद लगान देने में असमर्थ थे इसलिए यह आंदोलन हुवा था।  इसका केंद्र रोहड़ू था।  लोग अपने परिवारों तथा पशु धन के साथ जंगलों में चले गए। फसलें बर्बाद हो गई। राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत भूमि लगान थी जो बंद हो गई थी।  ब्रिटिश अधिकारी जी सी बनर्स ने बुशहर के राजा शमशेर से बात करके लोगों की मागों को मान लिया था और यह आंदोलन शांत हो गया था।






  मंडी में जन आंदोलन -----1869 में मंडी के लोगों  ने असहयोग आंदोलन कर दिया था।
मंडी की प्रजा बजीर गोसांऊ और पुरोहित शिव शंकर के भ्रषट और अत्याचारी स्वभाव से दुखी थी। मजबूर होकर अंग्रेजो को पुरोहित और उस के बेटे को रियासत से निकाल दिया और बजीर को 2000 रूपये जुर्माना किया गया।  और आंदोलन शांत हुवा था।



नालागढ़ आंदोलन-------------- 1877 में राजा ईश्वर सिह व् बजीर गुलाम  कदीर k  बिरुद्ध हुआ। लगान को बढ़ा  दिया गया था गुलाम कदीर और राजा के द्वारा जो लोग देने में असमर्थ थे जगह -जगह जलूस निकलने लगे सभाए होने लगी अंग्रेजों ने पुलिस दल भेज कर लोगों को पीटा और कुछ को जेलों में भी डाला पर बाद में राजा बजीर गुलाम कादिर और अंग्रेजों को लोगों की शर्ते माननी पड़ी।  बजीर गुलाम कादिर को रियासत से निकल दिया गया।  लगान में कमी की गई और लोगों को जेलो से रिहा भी किया गया। इस तरह से यह आंदोलन शांत हुवा था।




*  सिरमौर में भूमि आंदोलन------- 1878 में सिरमौर में हुआ।  यह आंदोलन राजा शमशेर प्रकाश की भूमि   बंदोबस्त ब्यवस्था के खिलाफ किया गया।


झुगा आंदोलन -----------------
                                               बिलासपुर में राजा अमरचंद के बिरोध में  1883 से 1888 तक हुआ।   राजा के अत्याचारों  के बिरोध में गेहड़वीं के ब्राह्मणों ने झुगियां जलाकर  बिरोध किया   और झुगियों में आग लगा दी और वे वहाँ से चले गये ।  इस से जनता भड़क गई और अंत  में राजा को बेगार प्रथा खतम करनी पड़ी  तथा प्रशाशनिक सुधार करने पड़े। और ब्राह्मणों को बापिस बुलाना पड़ा और उन्हें  जमीन वापिस दे दी गई। तथा मरे हुवे विद्रोहियों की पत्नियों को विधवा पेंशन लगा दी गई।  इस आंदोलन के प्रमुख नेता गुलाब राम नड्डा को 6 साल की सजा हुई और अन्य कई लोगों को सजा हुई थी।



चम्बा के किसानों का बिद्रोह -----------1898  में  किसानों ने लगान व  बेगार के विरुद्ध में राजा शाम सिह के विरुद्ध किसानों ने विद्रोह किया।



*  ठियोग में  किसानों का आंदोलन------1898 में  ठाकुरों के विरुद्ध किसानों का आंदोलन।



*  मंडी जागरण -----1909 ई में 20000 लोगों ने मंडी में प्रदर्शन किया बजीर जीवानंद के खिलाफ और राजा को अंग्रेजो की सहायता से बजीर जीवानंद को हटाना पड़ा था। और आंदोलन शांत हो कर समाप्त हो गया। 



गदर पार्टी -----लाला हरदयाल ने जून 1914 ई को सेनफ्रांसिस्को  (USA ) में गदर पार्टी की स्थापना की।  मंडी के हरदेव भी गदर पार्टी के सदस्य बन गए  जो बाद में स्वामी कृष्णा नंद के नाम से फेमस हुवे।  हरदेव का दूसरा साथी था भाई हिरदा राम जिसे लाहौर षडयंत्र केस में फांसी दी गई।  गदर पार्टी के अन्य सदस्य सुरजन तथा निधान सिह चुघा को नागचला डकैती के झूठे मुकदमे में फांसी दे दी गई।





मंडी षडयंत्र -----------
                                     1914 -15 ई में गदर पार्टी के नेतृत्व में हुआ।  इस पार्टी के सदस्य अमेरिका से आकर मंडी और सुकेत में कार्यकर्त्ता भर्ती करने के लिए फैल गये  मियां जवाहर सिंह और मंडी की रानी खैरगड़ी ने इस पार्टी की सहायता आर्थिक रूप से की।  1914-15 में आंदोलनकारियों ने एक योजना बनाई कि मंडी के अधीक्षक और बजीर की हत्या कर दी जाए और खजाने को लूट जाए ब्यास पर बने पल को उड़ा कर मंडी और सुकेत पर अधिकार कर लिया जाए  पर ये नागचला डकैती के सिवाए और किसी योजना में सफल नही हुवे।  इस आंदोलन को दबा दिया गया और रानी खैरगड़ी को देश निकाला दे दिया गया तथा धीरे धीरे सभी क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया। इनमे प्रमुख थे ----जवाहर नारायण , मियां जवाहरसिंह , बद्री सिधू आदि।



कुनिहार आंदोलन  --------------------1920  में हुआ। राजा के बिरुद्ध आवाज उठाई गई।  लोगों को कारावास में डाला गया। पर बाद में राणा हरदेव ने लोगों की माँगे मान ली। लगान में 25 % की कमी की गई , बंदी कार्यकर्ताओं को छोड़ दिया गया , प्रजामंडल से प्रतिबंध हटा दिया गया , एक शाशक सुधार कमेटी बनाई गई।  इस तरह से कुनिहार आंदोलन शांत हुवा था।




कांग्रेस आंदोलन ------
                                       1920 -23 ई में शिमला में कांग्रेस का आंदोलन जोर पकड़ने लगा इस आंदोलन के प्रमुख नेता --पण्डित गैन्डामल , मौलाना मुहमद नैनी ,अब्दुल पयनी , गुलाम मुहमद नबी , ठाकुर भागीरथ लाल तथा हकीम त्रिलोक नाथ थे।  इन्होंने गांवों में सभाएं की और जलूस निकाले। 1927 ई में सुजानपुर ताल में आयोजित सभा में पुलिस ने लोगों की निर्मम पिटाई की।  ठाकुर हाजरा सिंह , बाबा कांशीराम गोपालसिंह , और चतरसिंह को पीटा गया और उन की गाँधी टोपियां भी छीन ली गई। तभी पहाड़ी गाँधी बाबा कांशीराम ने सौगंध खाई की देश की आजादी तक वे काले कपड़े ही पहनेगे।  साथियों के साथ इन्हें लंबी सजा हुई।




बिलासपुर आंदोलन -------------------1930 में हुआ---भूमि बंदोबस्त अभियान चलाया गया बिलासपुर में इसमें 19 नेताओं को जेल हुई और जिन गांवों ने इस आंदोलन में भाग लिया था उन गांवों को सामूहिक 2500 रुपये का जुर्माना लगाया गया।




धामी गोली कांड ---- 
                                16 जुलाई 1939 में धामी गोली कांड हुआ था।  13 जुलाई 1939 ई को शिमला हिल स्टेट्स हिमाचल रियासती  प्रजा मंडल के नेता भागमल सोठा की अध्यक्षता में में धामी रियासत के स्वयंसेवको की बैठक हुई इस बैठक में धामी प्रेम प्रचारिणी सभा पर लगाई गई पावंदी को हटाने का अनुरोध किया गया  जिसे धामी के राणा ने मना कर दिया।  16 जुलाई 1939 में भागमल  के नेतृत्व में लोग धामी के लिए रवाना हुए।  भागमल सोठा को घणाटी  में गिरफ्दार दर दिया।  राणा ने हलोग चोक के पास इकठी जनता पर घबरा कर गोली चलाने की आज्ञा दे दी जिसमें 2 आदमी मारे गए व  कई घायल गये।  महात्मा गाँधी की आज्ञा पर नेहरू ने दुनीचंद वकील को इस घटना की जांच के लिए नियुक्त किया।




व्यक्तिगत सत्याग्रह ----
                                      1940 में गाँधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया। शिमला में इस सत्याग्रह में पण्डित पदमदेव , श्याम लाल खना , और महामंत्री  शालिग्राम शर्मा आदि प्रमुख नेता थे।  इन्होंने गंज में अनेक सभाएं की और भाषण दिए इन्हें पुलिस ने पकड़ लिया और पदम देव को पकड़ कर कैथू जेल में डाला गया और बाद में 18 मास की सजा देकर उन्हें लुधियाना  और गुजरात की जेलों में रखा गया। 1941  तक बहुत से नेता गिरफ्दार कर लिए गए थे।  पर 4 दिसम्बर 1941 को गाँधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन स्थगित कर दिया और धीरे -धीरे सभी नेताओं को छोड़ दिया गया।



पझौता आंदोलन -----------------
                                                     1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के साथ सिरमौर में पझौता आंदोलन शरूहुआ।   लोगों ने  राजा के कर्मचारियों की घूसखोरी व तानाशाही के बिरोध  में सशत्र आंदोलन किया।  राजा की सेना के बिरुद्ध लोगो ने टोपीदार बन्दूको से और पत्थरों से 2 महीनों तक सेना का  मुकाबला किया।  इस आंदोलन के नेता बैद्य सूरत सिह , मियां चु चु , बस्ती राम पहाड़ी , चेतराम आदि थे। इन सबको सेना ने गिरफ्दार दर लिया और इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई।




भारत छोड़ो आंदोलन ----
                                      14 जुलाई 1942 को कांग्रेस की बैठक में बर्धा में गाँधी ने भारत छोड़ो प्रस्ताव को पारित किया 7 -8  अगस्त को मुम्बई की बैठक में भारत छोड़ो आंदोलन को ब्यापक स्तर पर चलाने का निर्णय लिया गया गाँधी को नेतृत्व दिया गया। शिमला ,काँगड़ा और अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में भारत छोड़ो के संबंध में जलसे और जलूस निकाले गए और आंदोलन हुए इस आंदोलन में शिमला में भागमल सोठा को और पण्डित हरिराम आदि कई नेताओं को गिरफ्दार कर लिया गया और पंजाब की जेलों में बंद कर दिया गया। शिमला से राजकुमारी अमृतकौर भारत छोड़ो आंदोलन का संचालन करती रही। तथा गाँधी के जेल में बंद होने पर उनकी पत्रिका का सम्पादन करती रही। मई 1944 में महात्मा गाँधी को जेल से रिहा कर दिया गया और आंदोलन कुछ धीमा पड़ गया। सितम्बर 1944 में हिमाचल में भारत छोड़ो आंदोलन में गिरफतार नेताओं को रिहा कर दिया गया।




वेवेल योजना -------
                                  14 मई 1945 को लन्दन में भारत सचिव L.S. एमरी ने पार्लियामेंट में  राजनीतिक हल के लिया एक योजना की घोषणा की ,जो बाद में वेवेल योजना के नाम से प्रसिद्ध हुई।  बायसराय लार्ड वेवेल ने भारतीय राजनीतिक दलों को 25 जून 1945 को शिमला में बात चीत के लिए बुलाया गया। इसमें भाग लेने के लिए शिमला पहुँचे नेता वो थे ----कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद , जवाहरलाल नेहरू ,सरदार बल्लभ भाई पटेल , राजेन्द्र प्रसाद , चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ,खान अब्दुल गफ्फार खान , आचार्य कृपलानी ,गोविन्द बलभ पन्त ,पटाभि सीतारमैया ,शंकरराव देव ,जयराम दास ,दौलतराम ,रविशंकर शुक्ला ,सुचेता कृपलानी ,सरोजिनी नायडू ,भुला भाई  देसाई  , आसफ अली ,अरुणा आसफ अली ,मीराबेन आदि कांग्रेस के नेता शिमला आये और सलाह के लिए महात्मा गाँधी भी शिमला आये थे।



राज्य का गठन ---- हिमाचल प्रदेश को 15 अप्रैल 1948 को 30 छोटी-बड़ी पहाड़ी  रियासतों को मिला कर चीफ कमिशनर प्रोविंस का दर्जा दिया गया।  







                                                       
                               
























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